बिहार अपने बौद्ध तीर्थ स्थलों के लिए जाना जाता है। जहाँ एक तरफ़ विश्व-प्रसिद्ध वैशाली और बोधगया स्थित है, वहीं वैश्विक स्तर पर प्रासंगिकता वाला चम्पारण भी इसी बिहार में मौजूद है। चम्पारण में बौद्ध काल के कई स्मारक पाए जाते हैं। अशोक द्वारा निर्मित कई स्तंभ आज भी ज़िले के कई हिस्सों में देखे जा सकते हैं। इससे प्रतीत होता है कि एक समय में बौद्धों का यहाँ बहुत प्रभाव रहा है।
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि 600 वर्ष ईसा के जन्म के पहले (ईसा पूर्व) लिच्छवी वंश का राज्य चम्पारण में स्थापित था। मगध के राजा अजातशत्रु के साथ उनका मुक़ाबला हुआ था, जिसमें लिच्छवी लोग हार कर मगध राज्य को कर देने लगे थे। अभी तक नंदनगढ़ आदि स्थानों पर पुराने गढ़ के चिन्ह पाए जाते हैं और इतिहास-वेत्ताओं का मत है कि वे लिच्छवी राज्य के समय के हैं। यहाँ कुछ पुराने सिक्के पाए जा चुके हैं, जो एक हज़ार वर्ष पूर्व ख्रिष्टाब्द (ईस्वी सन्) के हैं।[1]
भगवान बुद्ध के काल में गंगा के उत्तर भाग में वैशाली गणतंत्र था। चम्पारण ज़िले का एक भाग ‘पिप्पली कानन’ कहलाता था। उस समय दरभंगा ज़िले का उत्तरी भाग और नेपाल के तराई भाग का नाम ‘मिथिला’ था। सारन ज़िले के दक्षिणी भाग, गंगा का उत्तरी किनारा तथा सरयू नदी का पूर्वी भाग ‘अल्लकप्प’ कहलाता था। उस ज़माने में अल्लपकप्प, पिप्पली कानन और मिथिला, वैशाली गणतंत्र के अधीन ही थे।[2]

बौद्ध मान्यताओं के मुताबिक़ गौतम बुद्ध एक रात अपने पसंदीदा सफ़ेद घोड़े ‘कनथक’ पर सवार होकर अपने रथवान ‘छंदक’ के साथ घर से निकले। अनोमा नदी को पार करने के बाद उसे घोड़े के साथ वापस भेज दिया। इसी स्थान पर उन्होंने अपने राजसी वस्त्र व गहने उतार कर फेंक दिए। यहीं पर अपने बालों का भी त्याग किया और एक तपस्वी के भेषभूषा और चरित्र को ग्रहण कर लिया। कहा जाता है कि यह स्थान बिहार के गंडक नदी के पूर्व में स्थित एक गाँव था, जहाँ से छंदक की वापसी हुई।[3] इस समय सिद्धार्थ गौतम की अवस्था 29 वर्ष की थी।[4]
महात्मा बुद्ध लंबे अंतराल के बाद अपनी मृत्यु के पूर्व वैशाली से कुशीनगर जाते समय चंपारण होते हुए गए थे। बिहार के पश्चिमी चम्पारण ज़िले के ज़िला मुख्यालय बेतिया से क़रीब 29 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गाँव लौरिया नंदनगढ़ या इसके आस-पास के लोगों का मानना है कि उनकी राख या उनके अंतिम संस्कार से लिया गया चारकोल यहीं किसी स्तूप में रखा है। ये स्तूप व स्तंभ चौथी शताब्दी ई.पू. में मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल के 21वें वर्ष में बनाया गया था। इन स्तंभों में उस राजवंश के अभिलेख और स्मारक आज भी मौजूद हैं।[5] बता दें कि उस ज़माने में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तंभ को ‘लौर’ कहा गया। और उस ‘लौर’ के 100 गज क़रीब पड़ोस में जो भी गाँव या क़स्बा हो, उसे ‘लौरिया’ के नाम से जाना जाता है।
बताया जाता है कि राजा अशोक ने पाटलिपुत्र (पटना) से अपनी तीर्थयात्रा शुरू की और वे चम्पारण ज़िले के केसरिया गाँव, लौरिया अरेराज व लौरिया नंदनगढ़ से गुज़रते हुए रामपुरवा गाँव गए। इन सब स्थानों में राजा अशोक ने ही स्तूप अथवा स्तंभ (लौर) बनवा दिया था। बता दें कि उस समय नेपाल भी मगध राज्य में सम्मिलित था और प्रायः सभी राज्य-कर्मचारियों को उसी रास्ते भिखनाटोरी होकर नेपाल जाना पड़ता था। कहा जाता है कि चीनी यात्री भी इसी मार्ग से यात्रा करते थे। चीनी यात्री फाहियान तथा ह्यु एन-सांग दोनों ने ही इन स्थानों का उल्लेख किया है। फाहियान भारत सन् 400 में आया था।[6] वहीं चीनी तीर्थयात्रियों के राजकुमार के रूप में मशहूर ह्यु एन-सांग ने चम्पारण की यात्रा सातवीं शताब्दी के शुरुआत में की थी। इस ज़िले में उन्होंने पहली बार उस स्थान का दौरा किया, जहाँ से ‘छंदक’ की वापसी हुई थी। ‘छंदक’ की वापसी के इस स्थान को एक घने जंगल के बीच चिन्हित किया गया, जहाँ सम्राट अशोक ने एक महान स्तूप का निर्माण किया था।[7]
आज भी चम्पारण के कई स्थान बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा गौतम बुद्ध की ज़िन्दगी से जुड़े होने के सबूत हैं। यहाँ के कई स्तूप व स्तंभ बौद्ध धर्म के अपने सभी रहस्यों को छिपाकर ख़ामोश पड़े हैं। चम्पारण की उन्हीं ख़ास धरोहरों पर एक नज़र —
केसरिया:
ब्रिटिश पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861 में पूर्वी चम्पारण स्थित इस केसरिया स्थल का दौरा किया। पहली बार इन्होंने ही इस टीलेनुमा स्तूप की खोज करने का दावा किया, जिसे स्थानीय रूप से रानीवास के रूप में जाना जाता था, लेकिन खुदाई में इसके बौद्ध धर्म से जुड़े होने के हर तरह के प्रमाण मिले। हालांकि कनिंघम के पहले 1814 में कर्नल कोलीन मैकेन्जी (1754 – 8 मई, 1821) भी इस ऐतिहासिक धरोहर की चर्चा कर चुके थे। वहीं खुद कनिंघम की रिपोर्ट बताती है कि पर्वतारोही बी.एच. हॉजसन को भी इस धरोहर का पता था। 1835 में जेम्स प्रिन्सेप के जर्नल ऑफ़ द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल ने हॉजसन की एक रिपोर्ट को प्रकाशित किया था।[8]
बता दें कि सर अलेक्जेंडर कनिंघम (23 जनवरी, 1814 - 18 नवंबर, 1893) ब्रिटिश सेना के ‘बंगाल इंजीनियर ग्रुप’ में इंजीनियर थे, जो बाद में भारतीय पुरातत्व, ऐतिहासिक भूगोल तथा इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान हुए। इनको भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग का जनक माना जाता है।

अलेक्जेंडर कनिंघम खुद अपनी रिपोर्ट में बताते हैं कि इस खंडहर को पहले ही बी.एच. हॉजसन द्वारा नोटिस में लाया जा चुका था, लेकिन कोई ख़ास विवरण प्रकाशित नहीं किया गया था।[9]
कनिंघम की रिपोर्ट बताती है कि इसकी कुल ऊँचाई 62 फीट और नीचे का घेरा 1400 फीट है। उन्होंने इसे सातवीं सदी का बताया है। कहते हैं कि ऊपर का स्तूप एक बहुत पुराने और बड़े स्तूप के भग्नावशेष पर बनाया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ चीनी यात्री ह्यु एन-सांग ने अपने वृत्तान्त में लिखा है कि वैशाली से क़रीब तीस मील उत्तर-पश्चिम एक बहुत पुराना शहर था जो बहुत दिनों से उजाड़ पड़ा है। यहाँ बुद्ध भगवान ने कहा था कि अपने एक पूर्व जन्म में मैंने एक चक्रवती राजा होकर इस शहर में शासन किया था। यहाँ जो स्तूप है, उसे बौद्धों ने इसी बात की यादगारी के लिए बनवाया था।
कनिंघम की रिपोर्ट के मुताबिक़ इस प्राचीन स्मारक को यहाँ के स्थानीय लोग 'राजा बेन का देवरा' के नाम से जानते हैं। पास के दूसरे टीले को रनिवास का भग्नावशेष बताते हैं। हालांकि राजा बेन की प्रजा में ऐसी कोई परंपरा नहीं है, सिवाय इसके कि वे भारत के पाँच सर्वोच्च सम्राटों में से एक थे। उन्हें राजा बेन चक्रवर्ती कहा जाता था। पास में ही एक तालाब है। कहते हैं कि गंगेया ताल वही तालाब है जहाँ राजा बेन की रानी पद्मावती स्नान करती थीं। तीन हज़ार फीट लंबा एक दूसरा तालाब ‘राजा बेन का तालाब’ कहलाता है। रनिवास नामक टीले को इतिहासकार एक बौद्ध मठ का भग्नावशेष बताते हैं। कनिंघम को यहाँ खुदाई के दौरान इसके अंदर एक मंदिर मिला था, जिसमें बुद्ध की एक विशाल मूर्ति थी।[10] यह मूर्ति 1878 में एक बंगाली कर्मचारी द्वारा हटा दी गई।[11]

वहीं यहाँ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का रखा हुआ बोर्ड बताता है कि ये बौद्ध स्तूप का भग्नावशेष 23.81 एकड़ भू-भाग पर फैला हुआ है। पूर्व में मैकेन्जी (1814 ई.) तथा अलेक्जेंडर कनिंघम (1861 ई.) द्वारा अन्वेषित इस स्तूप का उत्खनन 1997-98 ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पटना सर्किल द्वारा प्रारंभ किया गया, जिसे तत्पश्चात पुरातत्व उत्खनन शाखा-III द्वारा 2018 में पुनः आगे बढ़ाया गया। हालांकि खुदाई का कार्य 2018 में भी किया गया, लेकिन फ़िलहाल काम रुका हुआ है।
छः स्तरीय यह संरचना एक वृत्ताकार बौद्ध स्तूप है जो ईंटों एवं मिट्टी के गारे से निर्मित है। इसके शीर्ष में लगभग 10 मीटर ऊँचा तथा लगभग 22 मीटर व्यास वाला बेलनाकार विशाल अंड भाग है। स्तूप की कुल ऊँचाई लगभग 31.5 मीटर तथा व्यास 123 मीटर है।
लौरिया अरेराज :
ये पश्चिम चम्पारण में गोविन्दगंज थाने से चार मील उत्तर है, जो केसरिया और बेतिया के बीच में पड़ता है। यहाँ पत्थर का बना एक अशोक स्तंभ खड़ा है, जो अच्छी तरह से संरक्षित है। ये 249 ई.पू. में अशोक द्वारा निर्मित बुलंद पत्थर स्तंभों में से एक है।[12] आम तौर पर सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तंभ को ‘लौर’ कहा जाता है। लेकिन अलेक्जेंडर कनिंघम की रिपोर्ट के मुताबिक़ बी.एच. हॉजसन ने इसे ‘रधिया पिलर’ और क़रीब के गाँव को ‘मलहियाह’ कहा।
ये अशोक स्तंभ पॉलिश किए गए रेत-पत्थर का एक एकल खंड है, जो ज़मीन के ऊपर 36.5 फीट, नीचे आधार का व्यास 41.8 इंच और शीर्ष व्यास 37.6 इंच है। इस हिस्से का वज़न केवल लगभग 34 टन है, लेकिन जैसा कि ये ज़मीन में कई फीट नीचे तक है, ऐसे में इस सिंगल ब्लॉक का वास्तविक वज़न लगभग 40 टन होना चाहिए।[13] अनुमान किया जाता है कि इसके शिखर पर किसी जानवर की मूर्ति रही होगी। ये ईसा से 246 साल पहले बनाया गया था।[14] बावजूद इसके इस पर संभवतः पाली भाषा में लिखा हुआ संदेश आज भी बहुत स्पष्ट है। उत्तर की ओर 18 लाइनें हैं वहीं इसके दक्षिण की ओर 23 लाइनें हैं। यह जगह बहुत ही एकांत में है और ध्यान आकर्षित करने के लिए कोई खंडहर या अन्य अवशेष नहीं है।
लौरिया नंदनगढ़:
पश्चिम चम्पारण के ज़िला मुख्यालय बेतिया से 14 मील की दूरी पर ये लौरिया नंदनगढ़ स्थित है। यहाँ अशोक का एक सुरक्षित स्तंभ, एक बड़े स्तूप का भाग्नावशेष और कुछ पुरानी समाधि के टीले हैं। स्तंभ-दंड 32 फीट और 9.5 इंच लम्बा है। इसके आधार पर का व्यास 35.5 इंच और चोटी पर का व्यास 26.2 इंच है। इसका कलश 6 फीट और 10 इंच लंबा है। कलगी पर दाना चुगते हुए राजहंस की पंक्ति चित्रित है। ऊपर सिंह की मूर्ति खड़ी है। सिंह का मुंह कुछ टूटा हुआ है और स्तंभ-दंड पर ऊपर में तोप के गोले की निशानी है। इस पर 1660-61 ई. का लिखा औरंगज़ेब का नाम है। फ़ारसी में साफ़ अक्षरों में लिखा है — ‘मोहिउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब बादशाह आलमगीर ग़ाज़ी सन् 1071’। कनिंघम के रिपोर्ट के मुताबिक़ यह तारीख़ 1660-61 ई. के साथ मेल खाती है, जो कि औरंगज़ेब के शासनकाल का चौथा वर्ष था और रिकॉर्ड शायद मीर जुमला की सेना में कुछ उत्साही अनुयायियों द्वारा उत्कीर्ण किया गया था, जो सम्राट के भाई शुजा के मृत्यु के बाद बंगाल में वापस आ गया था।[15]

अरेराज के स्तंभ की तुलना ये पतला और हल्का है। इस स्तंभ का वज़न सिर्फ़ 18 टन है। इस पर भी अशोक के संदेश बिल्कुल वैसे ही लिखे हैं, जैसे अरेराज के स्तंभ पर हैं।
अलेक्जेंडर कनिंघम अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि स्तंभ अब लिंगराम के रूप में पूजा की वस्तु बन गया है। जब मैं शिलालेख की प्रतिलिपि बना रहा था, तो दो महिलाओं और एक बच्चे के साथ एक आदमी ने खंभे से पहले एक छोटा झंडा स्थापित किया और उसके चारों ओर मिठाइयों का प्रसाद रखा। वो लिखते के अनुसार कहा जाता है कि स्तंभ का निर्माण राजा भीम मारी ने किया था। ये पाँच पांडव भाइयों में से एक थे। लेकिन मैं ‘भीम मारी’ के संबंध में यहाँ कुछ नहीं पा सका।
इस अशोक स्तंभ के क़रीब ही दो टीलेनुमा छोटे-छोटे स्तूप नज़र आते हैं। यहाँ से क़रीब डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर एक टीलानुमा स्तूप है। कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में इसे नवंदगढ़ का क़िला बताया है। उनके मुताबिक़ ये टीला ऊपर से 250 से 300 फीट और ऊँचाई 80 फीट से अधिक है। इसकी ऊँचाई के कारण इसे त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण के स्टेशनों में से एक के रूप में चुना गया था।
कमिंघम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है —‘खुदाई में मिले चांदी के सिक्कों में से एक छोटा पंच-चिह्नित सिक्का मिला। ये सिक्के निश्चित रूप से सिकंदर महान के समय के पहले के हैं, और मेरा मानना है कि उनमें से कई 1000 ईसा पूर्व से भी पुराने हैं बल्कि शायद उससे भी पुराने’।[16]

कनिंघम के रिपोर्ट के मुताबिक़ टीले की ढलान पर दीवारों के निशान भी हैं। इन सतही ईंट के खंडहरों के बीच खुदाई में मोतिहारी के डिप्टी मजिस्ट्रेट मिस्टर लिंच को गुप्त काल के पात्रों में एक छोटे शिलालेख को वहन करते हुए काले मिट्टी के बर्तन की एक मुहर मिली, जो दूसरी व तीसरी शताब्दी ईस्वी की है। वहीं एक अन्य लेखक के मुताबिक़ लौरिया नंदनगढ़ की इस खुदाई में कई प्रकार की आदिम मूर्तियां मिलीं।[17]
यहाँ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का लगा बोर्ड बताता है कि ये टीले मिट्टी या कच्ची ईंटों के बने स्तूप हैं जिन्हें पक्की ईंटों से मज़बूत किया गया है। इनमें दो स्तूपों में राख और आदमी की जली हुई हड्डियों के साथ सोने के पत्तर पर बनी देवी की मूर्ति पाई गई थी। ऐसी ही मूर्ति पिपरावा (बस्ती ज़िला) के बौद्ध स्तूप में भी मिली थी।
वहीं आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का लगा एक दूसरा बोर्ड बताता है कि सर एलेक्जेंडर कनिंघम ने इस टीले को सन् 1880 में खोज किया। गैरिक ने इसी साल यानी 1880 में इसके उपरी सतह की खुदाई की। खुदाई के क्रम में उन्हें तीन मिट्टी के दीप मिले जिस पर अशोक-कालीन विशेषताओं से मिलता-जुलता अभिलेख उत्कीर्ण था। स्मिथ के विचार में यह अस्थि स्तूप था, लेकिन ब्लॉच इसे एक प्राचीन दुर्ग (क़िला) के रूप मानते हैं। सन् 1935-36 में एन.जी. मजूमदार ने इस स्थल को क्रमबद्ध खुदाई करवाया जिसे ए. घोष ने 1940-41 तक जारी रखा।
बोर्ड पर लिखी जानकारी ये भी बताती है कि श्रेणीबद्ध खुदाई से ईंट से निर्मित 24.38 मीटर ऊँचे स्तूप के अवशेष प्राप्त हुए। ये आकार में बहुकोणीय है तथा पाँच वेदिकाओं जो एक के उपर एक अवस्थित है, से निर्मित है। जिसमें तीन वेदियों पर परिक्रम पथ है। दीवारों के सामने भाग पर चारों तरफ़ क्षैतिज रुप में ईंटों का सुन्दर काम किया गया है। मुख्य स्थान से चारों तरफ़ 31.69 मीटर लंबा भाग है जो एक दूसरे से 81.07 मीटर पर है। चारों वृतपाद के प्रत्येक दोनों भाग में खाली स्थान 28 छोटे वृतपाद से भरा है जो अन्तरमुखी कोणों एवं 13 किनारों को दर्शाती है। श्री मजूमदार के मुताबिक़ ये संरचना बौद्ध स्तूप के रुप में मान्य है तथा अभिलिखित सिक्कों एवं मुद्रांक के अवशेषों से स्पष्ट होता है कि यह स्मारक पहली शताब्दी ईसा पूर्व के हो सकते हैं जो दूसरी शताब्दी ईस्वी तक अस्तित्व में क़ायम रहा।
रामपुरवा:
पश्चिम चम्पारण ज़िले के बिल्कुल उत्तर भाग में गौनाहा से कुछ दूर पिपरिया गाँव के पास यह एक गाँव है। यहाँ अशोक के दो खंडित स्तंभ हैं, जो ज़मीन पर खड़े होने के बजाए पड़ी हुई अवस्था में हैं। इस स्तंभ की चोटी पर का व्यास 26.25 इंच है। ठीक यही व्यास लौरिया नंदनगढ़ के स्तंभ की चोटी का भी है। इसकी कलगी पर दाना चुगते हुए हंसों की पंक्ति चित्रित है। एक स्तंभ के ऊपर सिंह की मूर्ति थी, वहीं दूसरे के ऊपर बैल की। सिंह वाली मूर्ति कलकत्ता के इंडियन म्यूज़ियम में तो वहीं बैल की बनी हुई मूर्ति इन दिनों देश की राजधानी दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में रखी गई है। कहा जाता है कि रामपुरवा से ही बौद्ध ने ‘छंदक’ को वापस भेजकर एक तपस्वी की भेषभूषा और चरित्र को ग्रहण कर लिया था।
कनिंघन ने रामपुरवा के अशोक स्तंभ की चर्चा अपने 1880-81 की रिपोर्ट में विस्तारपूर्वक की है।[18] बता दें कि अंग्रेज़ों ने चम्पारण को सन 1866 में ही स्वतंत्र इकाई बनाया था, लेकिन 1971 में इसका विभाजन कर पूर्वी तथा पश्चिमी चंपारण बना दिया गया। बौद्ध धर्म से जुड़े इन तमाम धरोहर आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की देख-रेख में हैं।
[1] डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, चंपारन में महात्मा गांधी, चतुर्थ संस्करण, (पटना: बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1998), 4.
[2] श्रीहवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’, बौद्धधर्म और बिहार, (पटना: बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1960), 5.
[3] L.S.S. O’ Malley, Bengal District Gazetteers: CHAMPARAN, (Calcutta: The Bengal Secretariat Book Depot, 1907), 16.
[4] त्रिपाठी, बौद्धधर्म और बिहार, 42.
[5] O’ Malley, ‘Bengal District Gazetteers: CHAMPARAN’, 16.
[6] Samuel Beal, Buddhist Records of the Western World, First published by Trubner & Co., London, 1984, (Delhi: Orient Books Reprint Corporation, 1984), 64.
[7] O’ Malley, Bengal District Gazetteers: CHAMPARAN, 17.
[8] Bengal Asiatic Society’s Journal, 1835 cited in Archeological Survey of India, Four Reports made during the Years 1862-65, by Alexander Cunningham, Volume 1, (Simla: Government Central Press, 1871), 64.
[9] वही, 64.
[10] Archeological Survey of India (ASI), Four Reports made during the Years 1862-65, by Alexander Cunningham, Volume 1, (Simla: Government Central Press, 1871), 65.
[11] Reports, Archaeological Survey, Bengal Circle, 1901-02 cited in L.S.S. O’ Malley, ‘Bengal District Gazetteers: CHAMPARAN’, (Calcutta The Bengal Secretariat Book Depot,1907), 160.
[12] Malley, ‘Bengal District Gazetteers: CHAMPARAN’, 160.
[13] ASI, Four Reports made during the Years 1862-65, 68.
[14] गदाधर प्रसाद अम्बष्ठ विद्यालंकार, ‘बिहार के दर्शनीय स्थान’, (बांकीपुर: ग्रंथमाला कार्यालय, 1940), 85.
[15] ASI, Four Reports made during the Years 1862-65, 73.
[16] वही, 70.
[17] Dr. Parmeshwari Lal Gupta, Gangetic Valley Terracotta Art, (Varanasi: Prithvi Prakashan, 1972), 24.
[18] A. Cunningham, ‘Report of Tours in North and South Bihar in 1880-81’, (Calcutta: Office of the Superintendent of Government Printing, 1883).
सन्दर्भ सूची: -
Beal, Samuel. Buddhist Records of the Western World, Delhi: Orient Books Reprint Corporation, 1884.
Cunningham, Alexander. Archeological Survey of India, Four Reports made during the Years 1862-65, Volume 1.Simla: Government Central Press, 1871.
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